योग का ही परिणाम है पूरी सृष्टि। गणित के योग की तरह ही यह हमारे गुणों की अभिवृद्धि करता है। हमारे भीतर की चेतना को जगाकर हमें संस्कारवान और हृष्ट-पुष्ट बनाता है। योग के महत्व पर डॉ. प्रणव पण्ड्या का आलेख... बाहरी धन-संपदा से ज्यादा महत्वपूर्ण है भीतर कीसंपदा। अंतस के धनी बनकर ही हम सही मायने में

सफल कहलाएंगे...

 

लोग समझते हैं कि योग सिर्फ शारीरिक अभ्यास है। यह एक भ्रांति है। हमारा पूरा जीवन ही योगमय है और संसार के समस्त प्राणी किसी न किसी रूप में योगी हैं। हमें योग का तात्पर्य समझकर उसके अनुशासन का पालन करने और अभ्यास करने की आवश्यकता है। योग उन्नति का कारक है, वह चाहे हमारी शारीरिक उन्नति हो अथवा आत्मिक उन्नति।

योग का अर्थ है-जोड़ना। दो भिन्न-भिन्न वस्तुओं या व्यक्तियों को आपस में जोड़ देना ही योग है। यह योग प्रत्येक व्यक्ति अपने प्रतिदिन के जीवन में करता है। माताएं बच्चों को आत्मीयता के भाव-सूत्र में जोड़े-पिरोए रखती हैं। यह ममत्व योग है। गृहस्वामी अपने परिवार को परस्पर में बांधे रखते हैं, संबद्ध रखते हैं। कोई किसी

से टूटने न पाए, बिछुड़ने न पाए, अलग न होने पाए, ये चेष्टाएं सतत् करते रहते हैं। गृहस्वामी के प्यार भरे प्रयत्न ही परिवार को परिवार बनाए रहते हैं। यह प्रयत्न योग ही है। हर व्यक्ति चाहे संसारी हो अथवा संन्यासी, चेतन-अचेतन में योग ही करता है।

संसार को भी योग का ही परिणाम कहा जाता है। अध्यात्म की मान्यताओं की बात करें तो कहा जाता है कि संसार पांच महाभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु) के संयोग से बना है। संयोग यानी सम्यक् रूप से योग। हमारे शरीर का निर्माण भी पांचों महाभूतों के योग से हुआ है। इन महाभूतों के साथ आत्मसत्ता का संयोजन हुआ, तभी जीव-जगत का निर्माण संभव हुआ। पुरुष और प्रकृति का योग हुआ, तो ब्रह्मांड का निर्माण हुआ। जड़-चेतन के योग से जीव-जगत की सृष्टि हुई। प्राणियों का आपस में योग हुआ तो परिवार का निर्माण हुआ। परिवारों के योग से समाज का निर्माण हुआ। यही विकास है। योग से ही यह सृष्टि हुई है और योग से

ही वह संचालित हो रही है। व्यवहार विचारों के योग से चलते हैं। व्यापार विश्वास के संयोग से। अगर विचारों का योग, तालमेल न हो तो व्यवहार नहीं निभ सकते। विश्वास के आदान-प्रदान न हों तो व्यवसाय नहीं चल सकते। ठगीगिरी, बेईमानी में योग नहीं होता। बेईमानी अलगाव के कारण होती है।

ईमानदारी के मामले में योग का विघटन नहीं हो सकता। ईमान योग का गुण है। सच्चाई योग का गुण है। सच्चाई के बगैर ईमान नहीं हो सकता और ईमान के बगैर विश्वास नहीं बना रह सकता। योग प्राणियों को ही नहीं, पदार्थों तक को नियत अनुशासन में बांधे रखता है। योग के अंग-प्रत्यंग उसके विभिन्न अनुशासन हैं। इसीलिए योगसूत्र समाधिपाद के प्रथम सूत्र में ही कह दिया गया है-‘अथ योगानुशासनम्’ यानी ‘अब योग का अनुशासन कहते हैं’। विभिन्न सूत्रों के माध्यम से उन्हें समझाया गया है। जिन नियमों- अनुशासनों का पारिवारिक व सामाजिक जीवन में पालन-प्रयोग किया जाता है, उसमें भावनाओं के स्तर को कुछ ऊंचा उठाकर, परिष्कृत-परिमार्जित कर किया जाए तो यही पूर्णयोग हो जाएगा, जिसके जरिये हम खुद को जानते हैं, अपने

भीतर ईश्वर की सत्ता को देखते हैं।

आस्तिक से लेकर नास्तिक तक, सब योग करते हैं-अपनी-अपनी दिशाओं और दृष्टियों में। अन्न जैवीय रसायनों में संयुक्त होता है, तो कायिक रस-धातुओं का निर्माण होता है और उनसे शारीरिक तंत्र का संचालन होता है। गणित के योग की तरह यह योग अभिवृद्धि भी करता है। भावनात्मक रूप से हमें सबल बनाकर हमें संस्कारवान

बनाता है और ग्रह-नक्षत्रों की अनुशासनबद्धता की तरह हमारे शरीर और मन की गति एवं स्थिति का संतुलन भी

बनाता है।

अगर हम इस योग का परिष्कृत और उन्नत रूप में अभ्यास कर लें तो हम आप सब योगी तो हैं ही। बस,

इसके लिए थोड़े से अभ्यास की ही आवश्यकता है।

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