प्राणमय कोश की साधना में बन्धों का प्रमुख स्थान है। ध्यानात्मक आसनों से पूर्ण लाभ उठाने के लिए उनके साथ-साथ तीन बंध साधने चलने की व्यवस्था योगियों ने की है। प्राणायाम के लिए ये बंध पूरक एवं सहयोगी सिद्ध झेते हैं। इनका पूर्ण फल स्वतन्त्रतः तो नहीं, ध्यानात्मक आसनों व प्राणायाम के साथ ही मिलता है जो मानसिक एवं आध्यात्मिक उत्कर्ष के रूप में होता है। ये कुल तीन हैं- (१) मूल बंध (२) उड्डियान बंध, और (३) जालंधर बंध।  (१) मूल बंध- प्राणायाम करते समय गुदा के छिद्रों को सिकोड़कर ऊपर की ओर खींचे रखना मूल-बंध कहलाता है। गुदा को संकुचित करने से ‘अपान’ स्थिर रहता है। वीर्य का अधः प्रभाव रुककर स्थिरता आती है। प्राण की अधोगति रुककर ऊर्ध्वगति होती है। मूलाधार स्थित कुण्डलिनी में मूल-बंध से चैतन्यता उत्पन्न होती है। आँतें बलवान होती हैं, मलावरोध नहीं होता रक्त-संचार की गति ठीक रहती है। अपान और कूर्म दोनों पर ही मूल-बंध का प्रभाव रहता है। वे जिन तन्तुओं में बिखरे हुए फैले रहते हैं, उनका संकुचन होने से यह बिखरापन एक केन्द्र में एकत्रित होने लगता है।        मूल बंध की क्रिया को ध्यानपूर्वक समझने का प्रयास किया जाय तो वह सहज ही समझ में भी आ जाती है और अभ्यास में भी। मूल बंध के दो आधार हैं। एक मल-मूत्र के छिद्र भागों के मध्य स्थान पर एक एडी़ का हलका सा दबाव देना। दूसरा गुदा संकोचन के साथ-साथ मूत्रेन्द्रिय का नाड़ियों के ऊपर खींचना।इसके लिए कई आसन काम में लाये जा सकते हैं। पालती मारकर एक-एक पैर के ऊपर दूसरा रखना। इसके ऊपर स्वयं बैठकर जननेन्द्रिय मूल पर हलका दबाव पड़ने देना।दूसरा आसन यह है कि एक पैर को आगे की ओर लम्बा कर दिया जाय और दूसरे पैर को मोड़कर उसकी ऐडी का दबाव मल-मूत्र मार्ग के मध्यवर्ती भाग पर पड़ने दिया जाय। स्मरण रखने की"

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