सिद्धासन के लाभ

  • सिद्धासन के अभ्यास से शरीर की समस्त नाड़ियों का शुद्धिकरण होता है । प्राणतत्व स्वाभाविकतया ऊर्ध्वगति को प्राप्त होता है । फलतः मन को एकाग्र करना सरल बनता है ।
  • पाचनक्रिया नियमित होती है । श्वास के रोग, हृदय रोग, जीर्णज्वर, अजीर्ण, अतिसार, शुक्रदोष आदि दूर होते हैं । मंदाग्नि, मरोड़ा, संग्रहणी, वातविकार, क्षय, दमा, मधुप्रमेह, प्लीहा की वृद्धि आदि अनेक रोगों का प्रशमन होता है । पद्मासन के अभ्यास से जो रोग दूर होते हैं वे सिद्धासन के अभ्यास से भी दूर होते हैं ।
  • ब्रह्मचर्य-पालन में यह आसन विशेष रूप से सहायक होता है । विचार पवित्र बनते हैं । मन एकाग्र होता है । सिद्धासन का अभ्यासी भोग-विलास से बच सकता है । 72 हजार नाड़ियों का मल इस आसन के अभ्यास से दूर होता है । वीर्य की रक्षा होती है । स्वप्नदोष के रोगी को यह आसन अवश्य करना चाहिए ।
  • योगीजन सिद्धासन के अभ्यास से वीर्य की रक्षा करके प्राणायाम के द्वारा उसको मस्तिष्क की ओर ले जाते हैं जिससे वीर्य, ओज तथा मेधाशक्ति में परिणत होकर दिव्यता का अनुभव करता है । मानसिक शक्तियों का विकास होता है ।
  • कुण्डलिनी शक्ति जागृत करने के लिए यह आसन प्रथम सोपान है ।
  • सिद्धासन में बैठकर जो कुछ पढ़ा जाता है वह अच्छी तरह याद रह जाता है । विद्यार्थियों के लिए यह आसन विशेष लाभदायक है । जठराग्नि तेज होती है । दिमाग स्थिर बनता है जिससे स्मरणशक्ति बढ़ती है ।
  • आत्मा का ध्यान करने वाला योगी यदि मिताहारी बनकर बारह वर्ष तक सिद्धासन का अभ्यास करे तो सिद्धि को प्राप्त होता है । सिद्धासन सिद्ध होने के बाद अन्य आसनों का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता । सिद्धासन से केवल या केवली कुम्भक सिद्ध होता है । छः मास में भी केवली कुम्भक सिद्ध हो सकता है और ऐसे सिद्ध योगी के दर्शन-पूजन से पातक नष्ट होते हैं, मनोकामना पूर्ण होती है । सिद्धासन के प्रताप से निर्बीज समाधि सिद्ध हो जाती है । मूलबन्ध, उड्डीयान बन्ध और जालन्धर बन्ध अपने आप होने लगते हैं ।
  • सिद्धासन जैसा दूसरा आसन नहीं है, केवली कुम्भक के समान प्राणायाम नहीं है, खेचरी मुद्रा के समान अन्य मुद्रा नहीं है और अनाहत नाद जैसा कोई नाद नहीं है ।
  • सिद्धासन महापुरूषों का आसन है । सामान्य व्यक्ति हठपूर्वक इसका उपयोग न करें, अन्यथा लाभ के बदले हानि होने की सम्भावना है ।

 

योनिस्थानकमङ्घ्रिमूलघटितं कृत्वा दृढं विन्यसेन्मेण्ढ्रे 
पादमथैकमेव हृदये कृत्वा हनुं सुस्थिरम् ।
स्थानुः संयमितेन्द्रियोऽचलदृशा पश्येद्भ्रुवोरन्तरं 
ह्येतन्मोक्षकपाटभेदजनकं सिद्धासनं प्रोच्यते ॥३७॥

सिद्धासन

नाम से ही ज्ञात होता है कि यह आसन सभी सिद्धियों को प्रदान करने वाला है, इसलिए इसे सिद्धासन कहा जाता है। यमों में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ है, नियमों में शौच श्रेष्ठ है वैसे आसनों में सिद्धासन श्रेष्ठ है।

स्वामी स्वात्माराम जी के अनुसार, "जिस प्रकार केवल कुम्भक के समय कोई कुम्भक नहीं, खेचरी मुद्रा के समान कोई मुद्रा नहीं, नाद के समय कोई लय नहीं; उसी प्रकार सिद्धासन के समान कोई दूसरा आसन नहीं है।

प्रथम विधि -

सर्वप्रथम दण्डासन में बैठ जाएँ। बाएँ पैर को मोड़कर उसकी एड़ी को गुदा और उपस्थेन्द्रिय के बीच इस प्रकार से दबाकर रखें कि बाएं पैर का तलुआ दाएँ पैर की जाँघ को स्पर्श करे। इसी प्रकार दाएँ पैर को मोड़कर उसकी एड़ी को उपस्थेन्द्रिय (शिशन) के ऊपर इस प्रकार दबाकर रखें। अब दोनों हाथ ज्ञान मुद्रा में रखें तथा जालन्धर बन्ध लगाएँ और अपनी दृष्टि को भ्रूमध्य टिकाएँ। इसी का नाम सिद्धासन है।

दूसरी विधि -

सर्वप्रथम दण्डासन में बैठ जाएँ तत्पश्चात बाएँ पैर को मोड़कर उसकी एड़ी को शिशन के ऊपर रखें तथा दाएँ पैर को मोड़कर उसकी एड़ी को बाएं पैर की एड़ी के ठीक ऊपर रखें। यह भी सिद्धासन कहलाता है।

सिद्धासन के लाभ -

यह सभी आसनों में महत्वपूर्ण तथा सभी प्रकार की सिद्धियों को प्रदान करने वाला एकमात्र आसन है। इस आसन के अभ्यास से साधक का मन विषय वासना से मुक्त हो जाता है। इसके अभ्यास से निष्पत्ति अवस्था, समाधि की अवस्था प्राप्त होती है। इसके अभ्यास से स्वत: ही तीनों बंध (जालंधर, मूलबन्ध तथा उड्डीयन बंध) लग जाते हैं। सिद्धासन के अभ्यास से शरीर की समस्त नाड़ियों का शुद्धिकरण होता है। प्राणतत्त्व स्वाभाविकतया ऊर्ध्वगति को प्राप्त होता है। फलतः मन एकाग्र होता है। विचार पवित्र बनते हैं। ब्रह्मचर्य-पालन में यह आसन विशेष रूप से सहायक होता है।

अन्य लाभ-

पाचनक्रिया नियमित होती है। श्वास के रोग, हृदय रोग, जीर्णज्वर, अजीर्ण, अतिसार, शुक्रदोष आदि दूर होते हैं। मंदाग्नि, मरोड़ा, संग्रहणी, वातविकार, क्षय, दमा, मधुप्रमेह, प्लीहा की वृद्धि आदि अनेक रोगों का प्रशमन होता है। पद्मासन के अभ्यास से जो रोग दूर होते हैं वे सिद्धासन के अभ्यास से भी दूर होते हैं।

सावधानी-

गृहस्थ लोगों को इस आसन का अभ्यास लम्बे समय तक नहीं करना चाहिए। सिद्धासन को बलपूर्वक नहीं करनी चाहिए। साइटिका, स्लिप डिस्क वाले व्यक्तियों को भी इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए। घुटने में दर्द हो, जोड़ो का दर्द हो या कमर दर्द की शिकायत हो, उन्हें भी इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए। गुदा रोगों जैसे बवासीर आदि से पीड़ित रोगी भी इसका अभ्यास न करें।

সিদ্ধাসন

সিদ্ধাসন

যোগশাস্ত্রে বর্ণিত আসন বিশেষ। পরিবৃত্ত শব্দের অনেকগুলো অর্থের একটি হলো―ঘূর্ণিত।

সিদ্ধিলাভের ভাবগত অর্থ থেকে এই  আসনের নামকরণ করা হয়েছে সিদ্ধাসন (সিদ্ধ +  আসন)। এই  আসনের বর্ধিত প্রকরণটি পরিবৃত্ত সিদ্ধাসন নামে পরিচিত।

સિદ્ધાસન

સૌપ્રથમ જમીન પર બેસી ડાબા પગને ઢીંચણથી વાળી એ પગની પાનીને સીટની નીચે રાખવી. અને જમણો પગ વાળી એ પગની પાનીને લિંગના મૂળમાં રાખવી. પછી જમણા પગના પંજાને ડાબા પગની પીડી અને સાથળ વચ્ચે ભરાવી દેવો. આસનમાં કરોડ અને કમર સીધાં એક રેખામાં રાખવા. બંને પંજાને ઢીંચણ પર ચત્તા મૂકી જ્ઞાન મુદ્રા કરવી. દ્રષ્ટિ ભ્રમરની મધ્યમાં સ્થિર કરવી. પાંચ મિનીટથી શરૂઆત કરી સમય વધારતાં વધારતાં ત્રણ કલાક સુધી સિદ્ધાસનમાં બેસી શકાય. અગત્યની વાત સમય કરતાં આસનમાં સ્થિરતા અને એકાગ્રતાથી બેસવાની છે.

 

सिद्धासन

आसनों में सिद्धासन श्रेष्ठ है। सिद्धासन को संपूर्ण मुद्रा के रूप में भी जाना जाता है। यह एक शुरुआती स्तर की योग स्थिति है। इसका का नाम दो शब्दों से मिलकर बना है सिद्ध का अर्थ है परिपूर्ण या निपुण, और आसन का अर्थ है मुद्रा। सिद्धासन के अभ्यास से आप आसनो में सुधार कर सकता है। जिस प्रकार केवल कुम्भक के समय कोई कुम्भक नहीं, खेचरी मुद्रा के समान कोई मुद्रा नहीं, नाद के समय कोई लय नहीं; उसी प्रकार सिद्धासन के समान कोई दूसरा आसन नहीं है।

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