योग का अर्थ,परिभाषा महत्व एवं उद्देश्य

प्रस्तावना ज्ञान का मूल वेदों में निहित है। दार्शनिक चिन्तन तथा वैदिक ज्ञान का निचोड आत्म तत्व की प्राप्ति है। आत्मतत्व की प्राप्ति का साधन योग विद्या के रूप में इनमें (वेद) उपलब्ध है। योगसाधना का लक्ष्य कैवल्य प्राप्ति है। वैदिक ग्रन्थ, उपनिषद्, पुराण और दर्शन आदि में यत्र-तत्र योग का वर्णन मिलता है । जिससे यह पुष्टि होती है कि योग वैदिक काल से सृष्टि में उपलब्ध है। योग के अर्थ एवं परिभाषाओं का वर्णन प्रस्तुत इकाई में किया जा रहा है।

Yoga Mudras

Apart from twisting and stretching in Yoga Asanas, the easy practice of yoga mudras helps you to attain the state physical and mental equanimity. Mechanism of yoga mudras is designed in such a way that it stimulates different brain glands by just touching fingertips in different patterns. In this article, I summarised the secret power of Yoga Mudras & how it works on your body.

ਯੋਗਾ ਮੁਦਰਾ

ਯੋਗਾ ਆਸਣ ਵਿਚ ਮਰੋੜਣ ਅਤੇ ਖਿੱਚਣ ਤੋਂ ਇਲਾਵਾ, ਯੋਗਾ ਮੁਦਰਾ ਦਾ ਅਸਾਨ ਅਭਿਆਸ ਰਾਜ ਦੀ ਸਰੀਰਕ ਅਤੇ ਮਾਨਸਿਕ ਬਰਾਬਰੀ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਨ ਵਿਚ ਤੁਹਾਡੀ ਮਦਦ ਕਰਦਾ ਹੈ. ਯੋਗਾ ਮੁਦਰਾ ਦੀ ਵਿਧੀ ਇਸ designedੰਗ ਨਾਲ ਤਿਆਰ ਕੀਤੀ ਗਈ ਹੈ ਕਿ ਇਹ ਵੱਖੋ-ਵੱਖਰੇ ਪੈਟਰਨਾਂ ਵਿਚ ਉਂਗਲੀਆਂ ਦੇ ਛੂਹਣ ਨਾਲ ਦਿਮਾਗ ਦੀਆਂ ਵੱਖੋ ਵੱਖਰੀਆਂ ਗ੍ਰਹਿਣਾਂ ਨੂੰ ਉਤੇਜਿਤ ਕਰਦਾ ਹੈ. ਇਸ ਲੇਖ ਵਿਚ, ਮੈਂ ਯੋਗਾ ਮੁਦਰਾ ਦੀ ਗੁਪਤ ਸ਼ਕਤੀ ਦਾ ਸੰਖੇਪ ਅਤੇ ਇਹ ਤੁਹਾਡੇ ਸਰੀਰ ਤੇ ਕਿਵੇਂ ਕੰਮ ਕਰਦਾ ਹੈ.

पतंजलि योग-दर्शन

पतंजलि योग-दर्शन में योग | योग-दर्शन में मोक्ष को अपनाने के लिये तत्वज्ञान पर अधिक बल दिया गया है। योग-दर्शन के अनुसार तत्वज्ञान की प्राप्ति तब तक नहीं हो सकती जब तक मनुष्य चित्त विकारों से परिपूर्ण है। अतः योग-दर्शन में चित्त की स्थिरता को प्राप्त करने के लिये तथा चित्तवृत्ति का निरोध करने के लिए योग-मार्ग की व्याख्या हुई है। योग-दर्शन में योग का अर्थ चित्तवृत्तियों का निरोध है। योग-दर्शन में राजयोग का विवेचन मिलता है। योग-मार्ग की आठ सीढ़ियाँ हैं। इसीलिये इसे अष्टांगयोग भी कहा जाता है।

प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली क्या है ?

प्राकृतिक−चिकित्सा−प्रणाली का अर्थ है प्राकृतिक पदार्थों विशेषतः प्रकृति के पाँच मूल तत्वों द्वारा स्वास्थ्य−रक्षा और रोग निवारण का उपाय करना। विचारपूर्वक देखा जाय तो यह कोई गुह्य विषय नहीं है और जब तक मनुष्य स्वाभाविक और सीधा−सादा जीवन व्यतीत करता रहता है तब तक वह बिना अधिक सोचे−विचारे भी प्रकृति की इन शक्तियों का प्रयोग करके लाभान्वित होता रहता है। पर जब मनुष्य स्वाभाविकता को त्याग कर कृत्रिमता की ओर बढ़ता है, अपने रहन−सहन तथा खान−पान को अधिक आकर्षक और दिखावटी बनाने के लिये प्रकृति के सरल मार्ग से हटता जाता है तो उसकी स्वास्थ्य−सम्बन्धी उलझनें बढ़ने लगती हैं और समय−समय पर उसके शरीर में कष

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