प्राकृतिक−चिकित्सा−प्रणाली का अर्थ है प्राकृतिक पदार्थों विशेषतः प्रकृति के पाँच मूल तत्वों द्वारा स्वास्थ्य−रक्षा और रोग निवारण का उपाय करना। विचारपूर्वक देखा जाय तो यह कोई गुह्य विषय नहीं है और जब तक मनुष्य स्वाभाविक और सीधा−सादा जीवन व्यतीत करता रहता है तब तक वह बिना अधिक सोचे−विचारे भी प्रकृति की इन शक्तियों का प्रयोग करके लाभान्वित होता रहता है। पर जब मनुष्य स्वाभाविकता को त्याग कर कृत्रिमता की ओर बढ़ता है, अपने रहन−सहन तथा खान−पान को अधिक आकर्षक और दिखावटी बनाने के लिये प्रकृति के सरल मार्ग से हटता जाता है तो उसकी स्वास्थ्य−सम्बन्धी उलझनें बढ़ने लगती हैं और समय−समय पर उसके शरीर में कष्टदायक प्रक्रियाएँ होने लगती हैं, जिनको ‘रोग’ कहा जाता है। इन रोगों को दूर करने के लिये अनेक प्रकार की चिकित्सा−प्रणालियाँ आजकल प्रचलित हो गई हैं जिनमें हजारों तरह की औषधियों, विशेषतः तीव्र विषात्मक द्रव्यों का प्रयोग किया जाता है। इन तीव्र दवाओं से जहाँ कुछ रोग अच्छे होते हैं वहाँ उन्हीं की प्रतिक्रिया से कुछ अन्य व्याधियाँ उत्पन्न हो जाती हैं और संसार में रोगों के घटने के बजाय नित्य नवीन रोगों की वृद्धि होती जाती है। इस अवस्था को देख कर पिछले सौ−डेढ़−सौ वर्षों के भीतर योरोप अमरीका के अनेक विचारशील सज्जनों का ध्यान प्राकृतिक तत्वों की उपयोगिता की तरफ गया और उन्होंने मिट्टी, जल, वायु, सूर्य−प्रकाश आदि के विधिवत् प्रयोग द्वारा शारीरिक कष्टों, रोगों को दूर करने की एक प्रणाली का प्रचार किया। वही इस समय प्राकृतिक चिकित्सा या ‘नेचर क्योर’ के नाम से प्रसिद्ध है।

पर यह समझना कि प्राकृतिक−चिकित्सा प्रणाली का आविष्कार इन्हीं सौ−दो−सौ वर्षों के भीतर हुआ है, ठीक न होगा। हमारे देश में अति प्राचीन काल से प्राकृतिक पंच−तत्वों की चमत्कारी शक्तियों का ज्ञान था और उनका विधिवत् प्रयोग भी किया जाता था। और तो क्या हमारे वेदों में भी, जिनको अति प्राचीनता के कारण अनादि माना जाता है और जिनका उद्भव वास्तव में वर्तमान मानव सभ्यता के आदि काल में हुआ था प्राकृतिक चिकित्सा के मुख्य−सिद्धान्तों का उल्लेख है। ऋग्वेद का एक मंत्र देखिये—

आपः इद्वा उ भेषजीरापो अमीवचातनीः।आपः सर्वस्य भेषजीस्तास्ते कृण्वन्तु भेषजम्॥ (10−137−6)

“जल औषधि रूप है, यह सभी रोगों को दूर करने वाली महान औषधि के तुल्य गुणकारी है। यह जल तुमको औषधियों के समस्त गुण (लाभ) प्राप्त करावे।”

इस तरह के वचन ऋग्वेद और अथर्ववेद में अनेक स्थानों पर मिलते हैं। साथ ही सूर्य−प्रकाश तथा वायु के आरोग्यप्रदायक गुणों का भी उल्लेख मिलता है। तामिल भाषा में वेदों के समान ही पूजनीय माना जाने वाले ‘कुरल’ नामक ग्रन्थ में प्राकृतिक चिकित्सा की विधियों की बड़े उत्तम ढंग से शिक्षा दी गई हैं। यह ग्रन्थ दो हजार वर्ष से अधिक पुराना है। इसी प्रकार योरोप के सर्वप्रथम चिकित्साशास्त्री माने जाने वाले ‘हिप्पोक्रेट्स’ ने मनुष्यों को स्वास्थ्य विषयक उपदेश देते हुये स्पष्ट लिखा है “तेरा आहार ही तेरी औषधि हो और तेरी औषधि तेरा आहार हो।” आजकल भी प्राकृतिक चिकित्सकों का एक बहुत बड़ा सिद्धांत यही है कि आहार ही ऐसा दिया जाय जो औषधि का काम दे और जिससे शरीर के विकार स्वयं दूर हो जायें। हिप्पोक्रेट्स का सिद्धान्त पूर्णतया भारतीय विद्वानों के मत से मिलता हुआ है, और उसे भारतवर्ष की विद्याओं का ज्ञान हो तो कोई आश्चर्य भी नहीं। क्योंकि उस ढाई हजार पुराने युग में भारत की सभ्यता और संस्कृति का संसार के सभी भागों में प्रचार हो चुका था।

इस प्रकार जब तक मनुष्य प्रकृति की गोद में पलते−खेलते थे, उनका रहन−सहन भी प्राकृतिक नियमों के अनुकूल था तो वे अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति प्राकृतिक ढंग से ही करते थे। पर मध्यकाल में जब बड़े−बड़े राज्यों और साम्राज्यों की स्थापना हो गई तो बड़े आदमियों के रहन−सहन में भोग विलास की अधिकता होने लगी और उसकी पूर्ति के लिये भाँति−भाँति के कृत्रिम उपायों का प्रयोग भी बढ़ने लगा। साधारण लोग भी उनकी नकल करके नकली चीजों को अधिक सुन्दर और आकर्षक समझने लगे, जिसके फल से लोगों का स्वास्थ्य निर्बल पड़ने लगा, तभी तरह−तरह के रोगों की वृद्धि होने लगी। जब काल क्रम से यह अवस्था बहुत बिगड़ गई और संसार की जनसंख्या तरह−तरह के भयानक तथा गन्दे रोगों के पंजे में फँस गई तो विचारशील लोगों का ध्यान इसके मूल कारण की तरफ गया और उन्होंने कृत्रिम आहार−बिहार की हानियों को समझ कर “प्रकृति की ओर लौटो” (बैक टू नेचर) का नारा लगाया।

यदि हम भारतीय धर्म और संस्कृति की दृष्टि से इस चिकित्सा−प्रणाली की व्याख्या करें तो हम कह सकते हैं कि मनुष्य के स्वास्थ्य और रोगों के भीतर भगवान की दैवी शक्ति ही काम कर रही है। व्यवहारिक क्षेत्र में यह रोगों और व्याधियों के निवारण के लिये केवल उन्हीं आहारों तथा पञ्च तत्वों का औषधि रूप में प्रयोग करना बतलाती है जो सर्वथा प्रकृति के अनुकूल हैं। इस प्रकार इस चिकित्सा के छह विभाग हो जाते हैं−मानसिक चिकित्सा, उपवास, सूर्य−प्रकाश−चिकित्सा, वायु चिकित्सा, जल चिकित्सा, आहार अथवा मिट्टी चिकित्सा।

आजकल जिस डाक्टरी चिकित्सा−पद्धति का विशेष प्रचलन है उसका उद्देश्य किसी भी उपाय से रोग में तत्काल लाभ दिखला देना होता है, फिर चाहे वह लाभ क्षण स्थायी−धोखे की टट्टी ही क्यों न हो। हम देखते हैं कि अस्पतालों में एक−एक रोगी को महीनों तक प्रतिदिन तीव्र इंजेक्शन लगते रहते हैं, पर एक शिकायत ठीक होती है तो दूसरी उत्पन्न हो जाती है। पर पीड़ा के कुछ अंशों में मिटते रहने के कारण लोग इस बाह्य चिह्नों की चिकित्सा के फेर में पड़े रहते हैं। इसके विपरीत प्राकृतिक चिकित्सा में रोगों के विभिन्न नामों तथा रूपों की चिन्ता न करके उनके मूल कारण पर ही ध्यान दिया जाता है और उसी को निर्मूल करने का प्रयत्न किया जाता है। इतना ही नहीं इस चिकित्सा का वास्तविक लक्ष्य केवल शारीरिक ही नहीं वरन् मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य प्राप्त कराना भी माना गया है, क्योंकि मानसिक तथा आध्यात्मिक सुधार के बिना शारीरिक स्वास्थ्य स्थायी नहीं हो सकता। इसलिये भारतीय चिकित्सा प्रणाली में जहाँ शुद्ध आहार−बिहार का विधान है वहाँ उच्च और पवित्र जीवन व्यतीत करने पर भी जोर दिया गया है। प्राकृतिक चिकित्सा के तत्व का यथार्थ रूप में हृदयंगम करने वाला व्यक्ति गीता के “कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” वाले वाक्य पर पूर्ण श्रद्धा रखकर ‘सत्य−आचरण’ को ध्यान रखता है और फल को भगवान के ऊपर छोड़ देता है। सत्य−आचरण वाला व्यक्ति प्रथम तो रोगी ही नहीं होगा और यदि किसी गलती या दुर्घटना से हो भी गया तो उसी आचरण के प्रभाव से रोग का निवारण शीघ्र ही हो जायेगा। रोग की अवस्था में यह ‘सत्य−आचरण’ उपवास शुद्ध वायु, प्रकाश, जल स्नान तथा औषधि रूप आहार का प्रयोग करना ही हो सकता है, इन साधनों से हम सब प्रकार के रोगों की सफलतापूर्वक चिकित्सा करने में सक्षम हो सकते हैं।

आगे चलकर जब रोगों के कारण और स्वरूप पर विचार करते हैं तो मालूम होता है कि रोग जीवित शरीर में ही उत्पन्न हो सकता है। जीवित शरीर एक मशीन या यंत्र की तरह है जिसका संचालन एक सूक्ष्मशक्ति (प्राण) द्वारा होता है। यही शक्ति भौतिक पदार्थों का सार ग्रहण करके उससे शरीर का निर्माण कार्य करती रहती है और दूसरी ओर इसी के द्वारा सब प्रकार के आहार से बचे हुये निस्सार मल रूप अंश का निष्कासन किया जाता है। ये दोनों क्रियाऐं एक दूसरे से सम्बन्धित हैं और इन दोनों के बिना ठीक तरह सञ्चालित हुये न तो जीवन और न स्वास्थ्य स्थिर रह सकता है। पर हम देखते हैं कि अधिकाँश लोग ग्रहण करने की—भोजन की क्रिया के महत्व को तो कुछ अंशों में समझते हैं और अपनी बुद्धि तथा सामर्थ्य के अनुसार पौष्टिक, शक्ति प्रदायक, ताजा, रुचिकारक भोजन की व्यवस्था करते हैं, पर निष्कासन की क्रिया के महत्व को समझने वाले और उस पर ध्यान देने वाले व्यक्तियों की संख्या अत्यन्त न्यून है। लोग समझते हैं कि उत्तम भोजन को पेट में डाल लिया जायेगा तो वह लाभ ही करेगा। पर यह भोजन यदि नियमानुसार परिमित मात्रा में पथ्य−अपथ्य का ध्यान रख कर न किया जायेगा तो निष्कासन की क्रिया का बिगड़ जाना अवश्यम्भावी है। उसके परिणामस्वरूप शरीर के भीतर मल और विकार जमा होने लगते हैं और स्वास्थ्य का संतुलन नष्ट हो जाता है।

यह विकार या विजातीय द्रव्य शरीर के स्वाभाविक तत्वों के साथ मिल नहीं पाता और एक प्रकार का संघर्ष अथवा अशान्ति उत्पन्न कर देता है। हमारी जीवनी−शक्ति यह कदापि पसन्द नहीं करती कि उस पर विजातीय द्रव्य का भार लादकर उसके स्वाभाविक देह−रक्षा के कामों में बाधा उपस्थित की जाय। वह हर उपाय से उसे शीघ्र से शीघ्र बाहर निकालने का प्रयत्न करती है। यदि वह उसे पूर्ण रूप से निकाल नहीं पाती तो ऐसे अंगों में डाल देने का प्रयत्न करती है जो सबसे कम उपयोग में आते हैं और जहाँ वह कम हानि पहुँचा कर पड़ा रह सकता है। इस प्रकार जब तक जीवनी−शक्ति विजातीय द्रव्य के कुप्रभाव को मिटाती रहती है तब तक हमें किसी रोग के दर्शन नहीं होते। पर जब हम बराबर गलत मार्ग पर चलते रहते हैं और विजातीय द्रव्य का परिमाण बढ़ता ही जाता है, तो लाचार होकर जीवनी शक्ति को उसे स्वाभाविक मार्गों के बजाय अन्य मार्गों से निकालना पड़ता है। चूँकि यह कार्य नवीन होता है, हमारे नियमित अभ्यास और आदतों के विरुद्ध होता है, इस लिये उससे हमको असुविधा, कष्ट, पीड़ा का अनुभव होता है और हम उसे ‘रोग’ या बीमारी का नाम देते हैं। पर वास्तविक रोग तो वह विजातीय द्रव्य या विकार होता है जिसे हम अनुचित आहार−विहार द्वारा शरीर के भीतर जमा कर देते हैं। ये कष्ट और पीड़ा के ऊपरी चिह्न तो हमारी शारीरिक प्रकृति अथवा जीवनीशक्ति द्वारा उस रोग को मिटाने का उपाय होते हैं। अगर हम इस तथ्य को समझ कर तथा कष्ट और पीड़ा को प्रकृति की चेतावनी के रूप में ग्रहण करके सावधान हो जायें तो रोग हमारा कुछ भी अनिष्ट नहीं कर सकता। उस समय हमारा कर्तव्य यही होना चाहिये कि हम प्रकृति के काम में किसी तरह का विघ्न बाधा न डालें वरन् अपने गलत रहन−सहन को बदलकर प्राकृतिक−जीवन के नियमों का पालन करने लगें। इससे विजातीय द्रव्य के बाहर निकालने के कार्य में सुविधा होगी और हम बिना किसी खतरे के अपेक्षाकृत थोड़े समय में रोग−मुक्त हो जायेंगे। संक्षेप में यही प्राकृतिक चिकित्सा का मूल रूप है, जिसको उपवास, मिट्टी और जल के प्रयोग, धूप−स्नान आदि कितने ही विभागों में बाँट कर सर्वसाधारण को बोधगम्य बनाने का प्रयत्न किया गया है।

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