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हठ प्रदीपिका एवं हिरण संहिता में योग अर्थात श्रीनाथ गुरु को प्रणाम करके योगी स्वर आत्माराम केवल राज रोक की प्राप्ति के लिए हट विद्या का उपदेश करते हैं हिरण संगीता में हठयोग के सप्त साधनों पर प्रकाश डालते हुए कहा गया अर्थात शोधन धैर्य लाग्यो प्रत्यक्ष और नैनीताल J7 शरीर सूती के साधन हैं जिन्हें सामान्य तथा प्रसाधन की संज्ञा दी जाती है इन सब साधनों के लाभों पर प्रकाश डालते हुए हिरण ऋषि कहते हैं 

अर्थात सेट कर मोसे शरीर का शोधन आसनों से दृढ़ता मुद्राओं से स्थिरता प्रत्याहार से धैर्य प्राणायाम से हल्का पन ध्यान से आत्म साक्षात्कार एवं समाज से निर्लिप्त था के भाव उत्पन्न होते हैं इन साधनों का अभ्यास करने वाले साधन की मुक्ति में कोई संशय नहीं रहता है इस प्रकार घेरंड संहिता एवं हठयोग प्रदीपिका में योग के स्वरूप को हठयोग के रूप में वर्णित किया गया

गीता में योग का विकास क्रम गीता अर्जुन को समझाते हुए मैं योग के संदर्भ में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं अर्थात अर्जुन तुम कर्म फलों की आसक्ति को त्यागकर सिद्धि और अतिथि जाए और पराजय मान और अपमान में समभाव रखते हुए कार्य कर क्योंकि यह समत्व की भावना ही योग है उन्हें भगवान श्री कृष्ण कर्म योग पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं अर्थात हे अर्जुन बुद्धिमान पुरुष अच्छे एवं बुरे दोनों ही कर्मों को इसी लोक में त्याग देती हैं तथा आसक्ति रहित होकर कर्म करते हैं क्योंकि कर्मों में कुशलता ही जो है यद्यपि गीता में कर्म योग का सर्वोत्तम शास्त्र माना गया है किंतु कर्म योग के साथ-साथ इस ग्रंथ में भक्तियोग ज्ञानयोग सन्यासियों मंत्र योग एवं ध्यान योग आदि योग के अन्य मार्गों का उल्लेख भी प्राप्त होता

आधुनिक युग में योग का विकास क्रम आधुनिक युग के योगी महर्षि योग को सांसारिक जीवन एवं आध्यात्मिक जीवन के मध्य सामंजस्य स्थापित करने का साधन मानते हैं आधुनिक युग में योग को एक नई दिशा देने वाले स्वामी रामदेव योग को स्वास्थ्य मानसिक जोड़ते हुए शारीरिक मानसिक एवं आध्यात्मिक स्वास्थ्य प्राप्त करने का साधन होता है शिक्षा के क्षेत्र में बच्चों पर बढ़ते तनाव को योगाभ्यास से कम किया जा रहा है योगाभ्यास से बच्चों को शारीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक रूप से भी मजबूत बनाया जा रहा है स्कूल व महाविद्यालयों में शारीरिक शिक्षा विषय में योग पढ़ाया जा रहा है वही योग ध्यान के अभ्यास द्वारा विद्यार्थियों में बढ़ते मानसिक तनाव को कम किया जा रहा है साथ ही साथ इस अभ्यास से विद्यार्थियों की एकाग्रता व स्मृति शक्ति पर भी विशेष सकारात्मक प्रभाव देखे जा रहे हैं आज कंप्यूटर मनोविज्ञान प्रबंधन विज्ञान के छात्र भी योग द्वारा तनाव पर नियंत्रण करते हुए देखे जा सकते हैं शिक्षा के क्षेत्र में योग के बढ़ते प्रचलन का अन्य कारण इसका नैतिक जीवन पर सकारात्मक प्रभाव है आजकल बच्चों में गिरते नैतिक मूल्यों को पुनः स्थापित करने के लिए योग का सहारा लिया जा रहा है योग के अंतर्गत आने वाले यम में दूसरों के साथ हमारे व्यवहार व कर्तव्य को सिखाया जाता है वही नियम के अंतर्गत बच्चों को स्वयं के अंदर अनुशासन स्थापित करना सिखाया जा रहा है विश्व भर के विद्वानों ने इस बात को माना है कि योग के अभ्यास से शारीरिक व मानसिक ही नहीं बल्कि नैतिक विकास होता है इस कारण आज सरकारी गैर सरकारी स्तर पर स्कूलों में योग विषय को अनिवार्य कर दिया गया

अभ्यास प्रश्न-
(1) - योग के पुरातन प्रवक्ता है

(A) महार्षि पंतजलि (B)महर्षि व्यास
(C) भगवान श्रीकृष्ण (D) हिरण्यगर्भ
(2) - निम्न में से आस्तिक दर्शन वैदिक नही है -
(A) वौद्ध दर्शन
योग दर्शन
(B)
(C ) न्याय दर्शन
(D ) साख्य दर्शन
(3 ) -किस ग्रन्थ में चित्त वृत्तियों के निरोध को योग कहा जाता
(A) ऋग्वेद में
योग दर्शन में
(B)
(C) गीता में (D) उपनिषद में

योग के आधारभूत तत्व
MY
(৮)
साख्य दर्शन में मुनिवर कपिल ने कितने तत्वों की कल्पना की-
(A ) 5
(B)
(C) 25
D) अनंत
(5) - घेरण्ड संहिता में किसका वर्णन किया गया है।
(B)
(A) अष्टांग योग
सप्त साधन,
(C) पंच तत्व
(D) त्रिदोष

सारांश प्रिय छात्रों उपरोक्त अध्ययन इस तथ्य को स्पष्ट करता है कि योग का उद्भव परमात्मा के श्री मुख से ही हुआ जो आगे चलकर उपनिषद साहित्य में तथा स्मृतियों एवं दर्शकों से होता हुआ वर्तमान समय तक अपने विकास के क्रम में आगे बढ़ा इस विद्या का उद्देश्य प्राणी को दुख से मुक्ति कर मुक्ति के मार्ग की ओर प्रशस्त करना है भिन्न-भिन्न व्यक्ति अपनी क्षमता रूचि से अपना सकती हैं जहां पर यह स्पष्ट करता भी अनिवार्य होगा कि इसके लिए मार्ग अलग-अलग हो सकते हैं किंतु लक्ष्य एक ही है उदाहरण के लिए जिस प्रकार संसार की अनेकों नदियां भिन्न-भिन्न मार्गों से होती हुई अंत में एक ही सागर में ही विलीन हो जाती हैं ठीक उसी प्रकार योग के भिन्न-भिन्न अंत में आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ देते हैं

योग में साधक एवं बाधक तत्व इकाई की संरचना प्रस्तावना उद्देश्य योग साधना में बाधक तत्व हठ प्रदीपिका के अनुसार योग सूत्र के अनुसार योग साधना में साधक तत्व हट प्रतिपदा के अनुसार योग सूत्र के अनुसार सासाराम शब्दावली अभ्यास प्रश्नों के उत्तर निबंधात्मक प्रश्न संदर्भ ग्रंथ सूची प्रस्तावना

पिछली इकाई में योग शब्द का अर्थ संस्कृत भाषा के योद्धा प्रसन्न होने के साथ विभिन्न ग्रंथों के अनुसार योग की परिभाषा ओं का अध्ययन किया गया प्रस्तुत इकाई में योग साधना के मार्ग में साधक के लिए साधना में सफलता हेतु सहायक तत्व तथा साधना में बाधक तत्व की चर्चा विभिन्न ग्रंथों के अनुसार की गई है वास्तविकता में योग साधना चाहे आध्यात्मिक लक्ष्य के लिए की जाए अथवा भौतिक संपन्नता हेतु दोनों ही स्थितियों में बाधाओं का आना स्वाभाविक ही है अतः यदि साधक इन बाधाओं को जानकर साधक तत्वों पर नियंत्रण प्राप्त कर सके तो वह साधना में अवश्य सफल रहता है इसी तथ्य को प्रस्तुत इकाई में अध्ययन करेंगे उद्देश्य प्रस्तुत इकाई को अध्ययन के पश्चात आप योग साधना के साधन तत्वों को जान पाएंगे योग साधना के बादलों को समझ पाएंगे हठयोग प्रदीपिका के अनुसार सादर तत्वों का अध्ययन करेंगे योग सूत्र के अनुसार साधक एवं बाधक तत्वों का अध्ययन कर सकेंगे विभिन्न ग्रंथों के अनुसार युवक के साथ एवं बाधक तत्व का अध्ययन कर इनका औचित्य समझ सकेंगे

योग साधना में बाधक तत्व जो योग साधक सच्चाई पूर्वक आध्यात्मिक मार्ग का अवलंबन करता है वह कुछ ऐसी कठिनाइयों एवं अनु के अनुभव को प्राप्त करता है जो उसमें प्रथम तथा साहस हीनता तथा मृत्सा उत्पन्न करके बाधा उत्पन्न करते हैं इसके विपरीत रिसीव मुन्नू के प्रयोगात्मक अनुभव के आधार पर योग साधना को सुगमता से प्रशस्त करने हेतु ऐसे उपाय हैं जो साधना की बाधाओं को प्रभावशाली ढंग से दूर कर देते हैं अतः योग साधना हेतु बाधक एवं सार्थक तत्वों का ज्ञान आवश्यक होता है जिसका विवरण शास्त्रों के अनुसार निम्न प्रकार है हठ प्रदीपिका के अनुसार अर्थात अधिक भोजन अधिक श्रम अधिक बोलना नियम पालन में आग्रह अधिक लोग संपर्क तथा मन की चंचलता यह 6 को नष्ट करने वाले तत्व हैं अर्थात योग मार्ग में प्रगति के लिए बाधक हैं उपयुक्त श्लोका अनुसार जो विघ्न बताए गए हैं उनकी व्याख्या अधो वर्णित है

अत्य हार आहार के अत्यधिक मात्रा में ग्रहण से शरीर की जठराग्नि अधिक मात्रा में खर्च होती है तथा विभिन्न प्रकार के पाचन संबंधी रोग जैसे अपन का क्या अमृता अग्नि मांग आदि उत्पन्न होते हैं यदि साधक अपनी उर्जा साधना में लगाने के अस्थान पर पाचन क्रिया हेतु खर्च करता है या पाचन रोगों से निराकरण हेतु सेट करना आसन आदि क्रियाओं के अभ्यास में समय नष्ट करता है तो योग साधना प्राकृतिक रूप से बाधित होती है अतः शास्त्रों में कहा गया है कि अर्थात जो आहार स्निग्ध वह मधुर हो और जो परमेश्वर को सादर समर्पित आमाशय के 34 भाग को पूर्ण करने के लिए ग्रहण किए जाएं जिसमें अमाशय का 14 भाग वायु संचरण व सुचारू रूप से पाचन करियार्थ छोड़ा जाए ऐसे मात्रा आधारित रुचिकर भोजन को सातवां राम जी मिताहार की संज्ञा देते हैं इसी प्रकार के सब गीता में कहा गया है कि अति खावे अति थोड़ा खावे अति सोवे अति जागर पाए यह स्वभाव रखें यदि कोई उसका योग सिद्ध नहीं हुए अर्थात अत्यधिक भोजन एवं अत्यधिक थोड़ा भोजन एवं अत्यधिक सोना और अत्यधिक जागना इस प्रकार का स्वाभाव यदि कोई साधक रखता है तो उसका योग कभी सिद्ध नहीं हो सकता इस प्रकार घरण ऋषि ने कहा है कि मीठा हारी ना होने के स्थान पर यदि साधक हत्या हारी आचार संहिता का पालन करता है तो नाना प्रकार के रोगों से ग्रसित होकर योग में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता अतः साधक को अत्याचार की प्रवृत्ति को त्यागना चाहिए शरीर को धारण करने में समर्थ होने के कारण धातु नाम को प्राप्त हुए वात पित्त कफ के न्यू नाश्ता खाए तथा पिए और आहार प्लाटों के परिणामस्वरूप रस की न्यू ना दिखता को व्याख्याता रोग कहते हैं शादी होने पर चित्रित उसमें अथवा उससे दूर करने के उपायों में लगी रहती है इससे वह योग में प्रवृत्त नहीं हो सकती इसी कारण व्याधि के गणना योग के विघ्न में होती है नींद की खुमारी अधिक परिश्रम प्रवृत्ति से बायका कार वृत्ति का अभाव हो जाता है अजय के कारण रूपों के कारण करने के लिए और लघु भोजन करने से और प्रत्येक व्यवहार में युक्ति तथा नियम के अनुसार चलने से एवं उत्थान के प्रयत्न द्वारा चित्र को जागृत करने से दूर होते हैं इस विषय में श्री कृष्ण भगवान ने अर्जुन के प्रति कहां है अर्थात जो अधिक भोजन करता है जो बिल्कुल बिना खाए रहता है जो बहुत सोता है तथा जो बहुत जागता है उसके लिए हे अर्जुन योग नहीं है बल्कि जो नियम पूर्वक भोजन करता है नियमित आहार विहार करता है उसके लिए जो दुख का नाश करने वाला होता है

प्रयास योग साधक को अत्यधिक शारीरिक व मानसिक श्रम से बचना चाहिए अत्यधिक शारीरिक व मानसिक श्रम राजसिक व तामसिक गुणों की वृद्धि के साथ-साथ शरीर से शारीरिक व मानसिक और गांव में असंतुलन पैदा करते हैं अतः योग साधक को अति प्रयाग त्यागना चाहिए

रिजल्ट अधिक बोलने की व्यवहारिकता से शारीरिक समय भी नष्ट होता है गपशप लड़ाने में समय व्यतीत करने से लोक संपर्क में वृद्धि होती है और यही वृत्ति नकारात्मक वृत्तियों जैसे ईर्ष्या द्वेष लोग आदि उत्पन्न कर योग मार्ग में बाधक बनती है नियम आग्रह योग साधक के लिए शास्त्रोक्त या सामाजिक धार्मिक मान्यताओं के अनुसार नियमों का सख्त पालन आवश्यक नहीं है जैसे यदि प्रातः काल ठंडे पानी से स्नान योग साधना के लिए आवश्यक माना गया है तो रोका अवस्था या अत्यंत सर्दी के मौसम में इस नियम का पालन आवश्यक नहीं है इन हालातों में थोड़े ठंडा जल का प्रयोग भी हो सकता है अत्यधिक नियमा ग्रह योग साधना मार्ग में बाधक

जनसंघ अत्यधिक लोक संपर्क में भी शारीरिक व मानसिक ऊर्जा ह्रास कर नष्ट करता है जितने लोगों के साथ संपर्क होगा उतनी ही आपकी योग साधना मार्ग के बारे में नोकझोंक मन व शरीर को स्थिर कर योग मार्ग की बाधा बनेगी यह त्याज्य है

चंचलता यह मृत्यु भी योग साधना मार्ग में बाधक है शरीर की अस्थिरता देर के समय अवधि की साधना हेतु पाठक बनती है नकारात्मक वृद्धि या जैसे ईर्ष्या द्वेष आदि मन की चंचलता बढ़ाकर योग मार्ग में विघ्न उत्पन्न करती हैं साधना की अनियमितता जैसे एक दिन तो सुबह 4:00 बजे से साधना की दूसरे दिन हालत सेवा सुबह 7:00 बजे उठकर कि इस तरह की अब चिंता भी योग साधना में बाधक बनती है चित्र विच्छेद को की ही योगा अंतराय कहते हैं चित्र को विकसित करके उसे एकाग्रता को नष्ट कर चुप कर देते हैं उन्हें युगांतर आए अथवा योग विघ्न कहा गया है योगेश अंतर मध्य जानती ते अंतर आया यह योग के मध्य में आते हैं इसलिए इन्हें योगा अंतराय कहा जाता है विघ्नों से व्यथित होकर जोक साधक साधना को बीच में ही छोड़कर चल देते हैं या तो विघ्न आए ही नहीं अथवा यदि आए तो उनको सहने की शक्ति चित्र में आ जाए ऐसी कृपा ईश्वर ही कर सकता है यह तो संभव नहीं कि फिकर ना आए यह श्रियांशी व्यक्ति शुभ कार्यों में विघ्न आया ही करते हैं उन से टकराने का सहज योग साधक में होना चाहिए

योग शास्त्र के अनुसार चित्र के बीच चिपक 9 अंतर आए हैं व्याधि स्थानीय संसद प्रमाद आलस्य अभिवृत्ति भ्रांति दर्शन अल्बर्ट भूमिगत और अनावली स्थित व अंतराय ही चित्र को विक्षिप्त करते हैं अतः योग विरोधी हैं चित्र व्रतियों के साथ इनका अतिरेक है अर्थात इन रक्षकों के होने के प्रमाण आदि जूतियां होते हैं जब यह नहीं होते हैं तो वृत्तीय भी नहीं होती व्रतियों के अभाव में चित्त स्थिर होता है इस प्रकार चित्र विक्षेप के प्रति यह उतना अंतराय एक कारण हैं

जो साधना की बाधाओं को प्रभावशाली ढ से दूर कर देर्ती
बाधक एंव साधक तत्वों का ज्ञान आवश्यक होता है, जिसका
निम्न प्रकार है-

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