हमारे शरीर को 13 प्रकार की अग्नियां चलाती हैं, जिनमें खाना पचाने में उपयोगी सात धातुओं की अग्नि, पांच भूतों की अग्नि व एक भूख लगाने वाली जठराग्नि होती है। अतः जो इन 13 प्रकार की अग्नियों को बल दे, उसे अग्निसार कहते हैं। यह क्रिया पेट के रोगों से जीवन भर बचाव के लिए बड़ी महत्वपूर्ण है। यह भी षट्कर्म का एक अभ्यास है।

विधि : इसके लिए खड़े हो जाए और दोनों पैरों को थोड़ा खोल लें। अब पूरी सांस भरें और अच्छी तरह से सांस बाहर निकालते हुए आगे झुकें और हाथों को जंघाओं पर रख लें। अब सांस को बाहर ही रोक कर रखें व हाथों से पैरों पर जोर डालते हुए पेट को अन्दर की तरफ खींचे और फिर बाहर की ओर ढीला छोड़े। इस प्रकार जब तक सांस बाहर रोक सकें, तब तक लगातार पेट को अंदर-बाहर पम्पिंग की तरह हिलाते रहें। फिर जब लगे अब सांस नहीं रोक सकते, तब पेट को ढीला छोड़ दें और सांस भरकर आराम से सीधे खड़े हो जाएं। थोड़ा आराम करने के बाद इस क्रिया को फिर से दोहरा लें। 3 से 4 बार क्रिया का अभ्यास करें।

सावधानियां : पेप्टिक अल्सर, कोलाईटिस, हर्निया या पेट का ऑपरेशन हुआ हो तो इसका अभ्यास न करें। स्त्रियां मासिक धर्म के दिनों में और गर्भावस्था में इसका अभ्यास न करें।

 

लाभ: इससे पेट के सभी अंगों को अधिक मात्रा में रक्त मिलने लगता है जिससे आमाशय, लीवर, आंतें, किडनी, मलाशय व मूत्राशय को बल मिलता है और इनसे संबंधित रोग नहीं होते। कब्ज, गैस, डकार, अफारा, भूख न लगना आदि पाचन तंत्र के रोग ठीक हो जाते हैं। इसलिए प्रतिदिन इसका अभ्यास करने से कभी पेट के रोग परेशान नहीं करते। इसके अभ्यास से कभी पेट बाहर नहीं निकलता। मोटापा दूर होने लगता है। डायबटीज़ में यह क्रिया राम-बाण की तरह कार्य करती है और बढ़ा हुआ शुगर लेवल बड़ी शीघ्रता से कम हो जाता है। साथ ही यह नपुंसकता को दूर कर युवा अवस्था को बनाए रखने में बड़ा उपयोगी है।

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