OSHO Nataraj Meditation

ओशो नटराज ध्‍यान ओशो के निर्देशन में तैयार किए गए संगीत के साथ किया जा सकता है। यह संगीत ऊर्जा गत रूप से ध्‍यान में सहयोगी होता है। और ध्‍यान विधि के हर चरण की शुरूआत को इंगित करता है।

नृत्‍य को अपने ढंग से बहने दो; उसे आरोपित मत करो। बल्‍कि उसका अनुसरण करो, उसे घटने दो। वह कोई कृत्‍य नहीं, एक घटना है। उत्‍सवपूर्ण भाव में रहो, तुम कोई बड़ा गंभीर काम नहीं कर रहे हो; बस खेल रहे हो। अपनी जीवन ऊर्जा से खेल रहे हो, उसे अपने ढंग से बहने दे रहे हो। उसे बस ऐसे जैसे हवा बहती है और नदी बहती है, प्रवाहित होने दो……तुम भी प्रवाहित हो रहे हो, बह रहे हो, इसे अनुभव करो।

और खेल के भी में रहे। इस शब्‍द ‘खेल पूर्ण भाव’ का ध्‍यान रखो—मेरे साथ यह शब्‍द बहुत प्राथमिक है। इस देश में हम सृष्‍टि को परमात्‍मा की लीला, परमात्‍मा को खेल कहते है। परमात्‍मा ने संसार का सृजन नहीं किया है, वह उसका खेल है।
निर्देश:

पहला चरण: चालीस मिनट
आंखे बंद कर इस प्रकार नाचे जैसे आविष्‍ट हो गए हों। अपने पूरे चेतन को उभरकर नृत्‍य में प्रवेश करने दें। न तो नृत्‍य को नियंत्रित करें, और न ही जो हो रहा है उसके साक्षी बने। बस नृत्‍य में पूरी तरह डूब जाएं।

दूसरा चरण: बीस मिनट
आंखे बंद रखे हुए ही, तत्‍क्षण लेट जाएं। शांत और निश्‍चल रहें।

तीसरा चरण: पाँच मिनट
उत्‍सव भाव से नाचे; आनंदित हों और अहो भाव व्‍यक्‍त करें।
नर्तक को, अहंकार के केंद्र को भूल जाओ; नृत्‍य ही हो रहो। यही ध्‍यान है। इतनी गहनता से नाचो कि तुम यह बिलकुल भूल जाओ कि तुम नाच रहे हो और यह महसूस होने लगे कि तुम नृत्‍य ही हो। यह दो का भेद मिट जाना चाहिए। फिर वह ध्‍यान बन जाता है। यदि भेद बना रहे तो फिर वह एक व्‍यायाम ही है: अच्‍छा है, स्‍वास्‍थकर है, लेकिन उसे अध्‍यात्‍मिक नहीं कहा जा सकता है। वह बस एक साधारण नृत्‍य ही हुआ। नृत्‍य स्‍वयं में अच्छा है—जहां तक चलता है, अच्‍छा है। उसके बाद तुम ताजे और युवा महसूस करोगे। परंतु वह अभी ध्‍यान नहीं बना। नर्तक को विदा देते रहना चाहिए। जब तक कि केवल नृत्‍य ही न बचे।

तो क्‍या करना है? नृत्‍य में समग्र होओ, क्‍योंकि नर्तक नृत्‍य भेद तभी तक रह सकता है जब तक तुम उसमें समग्र नहीं हो। यदि तुम एक और खड़े रहकर अपने नृत्‍य को देखते रहते हो, तो भेद बना रहेगा: तुम नर्तक हो और तुम नृत्‍य कर रहे हो। फिर नृत्‍य एक कृत्‍य मात्र होता है। जो तुम कर रहे हो; वह तुम्‍हारा प्राण नहीं है। तो पूर्णतया उसमें संलग्‍न हो जाओ, लीन हो जाओ। एक और न खड़े रहो, एक दर्शक मत बने रहो। सम्‍मिलित होओ।
ओशो