अवधान को बढ़ा - ओशो

 जहां कहीं भी तुम्हारा अवधान उतरे, उसी बिंदु पर, अनुभव।

 

इस विधि में सबसे पहले तुम्हें अवधान साधना होगा, अवधान का विकास करना होगा। तुम्हें एक भांति का अवधानपूर्ण रुख, रुझान विकसित करना होगा; तो ही यह विधि संभव होगी। और तब जहां कहीं भी तुम्हारा अवधान उतरे, तुम अनुभव कर सकते हो-स्वयं को अनुभव कर सकते हो। एक फूल को देखने भर से तुम स्वयं को अनुभव कर सकते हो। तब फूल को देखना सिर्फ फूल को ही देखना नहीं है वरन देखने वाले को भी देखना है। लेकिन यह तभी संभव है जब तुम अवधान का रहस्य जान लो।

 

साप्ताहिक ध्यान :"मैं यह नहीं हूं'

मन कचरा है! ऐसा नहीं है कि आपके पास कचरा है और दूसरे के पास नहीं है। मन ही कचरा है। और अगर आप कचरा बाहर भी फेंकते रहें, तो जितना चाहे फेंकते रह सकते हैं, लेकिन यह कभी खतम होने वाला नहीं है। यह खुद ही बढ़ने वाला कचरा है। यह मुर्दा नहीं है, यह सकि"य है। यह बढ़ता रहता है और इसका अपना जीवन है, तो अगर हम इसे काटें तो इसमें नई पत्तियां अंकुरित होने लगती हैं।

 

ध्यान : उगते सूरज की प्रशंसा में

सूर्योदय से पहले पांच बजे उठ जाएं और आधे घंटे तक बस गाएं, गुनगुनाएं, आहें भरें, कराहें। इन आवाजों का कोई अर्थ होना जरूरी नहीं--ये अस्तित्वगत होनी चाहिए, अर्थपूर्ण नहीं। इनका आनंद लें, इतना काफी है--यही इनका अर्थ है। आनंद से झूमें। इसे उगते हुए सूरज की स्तुति बनने दें और तभी रुकें जब सूरज उदय हो जाए।

इससे दिन भर भीतर एक लय बनी रहेगी। सुबह से ही आप एक लयबद्धता अनुभव करेंगे और आप देखेंगे कि पूरे दिन का गुणधर्म ही बदल गया है--आप ज्यादा प्रेमपूर्ण, ज्यादा करुणापूर्ण, ज्यादा जिम्मेवार, ज्यादा मैत्रीपूर्ण हो गए हैं ; और आप अब कम हिंसक, कम क्रोधी, कम महत्वाकांक्षी, कम अहंकारी हो गए हैं।

ध्यान : सब कुछ आपके केंद्र में लौटता है

किसी वृक्ष के नीचे बैठ जाओ। हवा बह रही है और वृक्ष के पत्तों में सरसराहट की आवाज हो रही है। हवा तुम्हें छूती है, तुम्हारे चारों तरफ डोलती है और गुजर जाती है। लेकिन तुम उसे ऐसे ही मत गुजर जाने दो; उसे अपने भीतर प्रवेश करने दो और अपने में होकर गुजरने दो। आंखें बंद कर लो और जैसे हवा वृक्ष से होकर गुजरे और पत्तों में सरसराहट हो, तुम भाव करो कि मैं भी वृक्ष के समान खुला हुआ हूं और हवा मुझमें भी होकर बह रही है--मेरे आस-पास से नहीं, ठीक मेरे भीतर से होकर बह रही है। वृक्ष की सरसराहट तुम्हें अपने भीतर अनुभव होगी और तुम्हें लगेगा कि मेरे शरीर के रंध्र-रंध्र से हवा गुजर रही है।

ध्यान

 ध्यान महर्षि महर्षि पतंजलि अष्टांग योग साधना पद्धति का सप्तम मंगल योग दर्शन का उद्देश्य आत्म साक्षात करना यह समाधि की प्राप्ति करना है ध्यान समाधि से पूर्व की अवस्था है जब ध्यान अमृत रूप से प्रभावित होता रहता है तो यह समाधि का सादर करा देता है अष्टांग योग के दो भाग बजरंग कथा अंतरंग योग है बहिरंग योग में यम यम नियम आसन प्राणायाम प्रत्याहार आते हैं जबकि अंतरंग योग साधना में धारणा ध्यान तथा समाधि आते हैं दाना में अपने इस चंचल मन को किसी एक स्थान पर केंद्रित किया जाता है जब किसी स्थान विशेष पर हमारा मन नियंत्रण केंद्रित रहने लगता है तब वह धारणा ध्यान में परिवर्तित होने लगती है महर्षि पतंज

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